इच्छा और हकीकत के बीच का अंतर – The Journal of Indian Law and Society

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By Shireen Yachu

(This blog is the seventh in the series of blogs that JILS will publish in various vernacular languages as part of its initiative to mark the International Mother Language Day.)

इस स्तंभ का पहला भाग सम्मान के साथ मरने के अधिकार पर विचार करता है तथा उन संरचनात्मक मुद्दों पर प्रश्न उठाता है जो इस अधिकार की प्राप्ति में बाधा डालते हैं| यह कॉमन कॉज बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के फैसले का विश्लेषण करता है, जिसमें न्यायिक बाधाओं और अप्रभावी कार्यान्वयन की आलोचना की गई है। फिर, यह जीवन के अंत में देखभाल के मुद्दों पर गलत रिपोर्टिंग की आलोचनात्मक रूप से जांच करता है, खासकर कर्नाटक द्वारा कॉमन कॉज के आदेशों को लागू करने के बाद। आखिर में यह भारत में जीवन के अंत के देखभाल के लिए एक समर्पित ढांचे की आवश्यकता पर जोर देता है| 

जब भी मैने लोगो से पूछा है, “आप अपना अंतिम समय कैसे गुजारना चाहते हैं?”, तो अक्सर लोगो ने कहा – “शांतिपूर्वक”, “अपने घर में” या “नींद में “| इन इच्छाओ को फरमाना आसान है, लेकिन भारत में इन्हे पूरा करना कठिन| हमारे देश में जीवन के अंतिम दिनों में लोगो की सहायता के लिए की सुविधाएँ बहुत सिमित है | भारत लगातार विश्व में मरने के लिए सबसे खराब देशो में से एक रहा है[1] | इसके पीछे कई कारन हैं, जैसे जीवन के अंतिम चरण की देखभाल हेतु अपर्याप्त सेवाए, जानकारी की कमी, और मृत्यु को बारे में बात करने में झिझक | लोगो की इच्छा और हकीकत के बीच का अंतर केवल एक व्यक्तिगत समस्या नहीं है, बल्कि प्रणालीगत असफलता भी है | यह सिर्फ चिकित्सा और नैतिकता का सवाल नहीं है, कानून का भी सवाल है | भारतीय न्यायपालिका ने सम्मानपूर्वक तरीके से मरने के अधिकार को माना है, लेकिन, व्याचार में, इसे पाने की पप्रक्रीया लगभग असंभव है |

इस स्तंभ का पहला भाग सम्मान के साथ मरने के अधिकार पर विचार करता है तथा उन संरचनात्मक मुद्दों पर प्रश्न उठाता है जो इस अधिकार की प्राप्ति में बाधा डालते हैं| यह कॉमन कॉज बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के फैसले का विश्लेषण करता है, जिसमें न्यायिक sबाधाओं और अप्रभावी कार्यान्वयन की आलोचना की गई है। फिर, यह जीवन के अंत में देखभाल के मुद्दों पर गलत रिपोर्टिंग की आलोचनात्मक रूप से जांच करता है, खासकर कर्नाटक द्वारा कॉमन कॉज के आदेशों को लागू करने के बाद। आखिर में यह भारत में जीवन के अंत के देखभाल के लिए एक समर्पित ढांचे की आवश्यकता पर जोर देता है|

कानूनी ढांचा: केवल नाम का अधिकार

जीवन के अंत की देखभाल किसी लाइलाज बीमारी के कारण सीमित जीवन प्रत्याशा वाले व्यक्तियों को दिए जाने वाली चिकित्सा, मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक सहायता है[2]| यह कोई विलासिता नहीं है। लेकिन यह देखते हुए कि जीवन के अंत तक देखभाल कितना दुर्गम है, यह एक विलासिता मानी जा सकती है | इस देखभाल का उद्देश्य अत्यधिक इलाज करने के बजाय रोगी को आराम देना है| जैसे-जैसे भारत में वृद्ध आबादी बढ़ती जा रही है और लाइलाज बीमारियों से पीड़ित लोगों की संख्या बढ़ रही है[3], एक परिभाषित जीवन-पर्यंत देखभाल ढांचे की आवश्यकता जरूरी हो गई है। इस क्षेत्र की प्रगति असंगत न्यायिक फैसलों (Gian Kaur v. Union of India[4], and Aruna Shanbaug v. Union of India[5]) सामजिक गलतफहमियों और खराब प्रवर्तन के कारण बाधित है। सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मर्यादा के साथ मरने के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी[6]। इस अधिकार में जीवन-निर्वाह उपचार से इनकार करने का भी हक़ शामिल है| कॉमन कॉज़ बयान संघ का निर्णय स्वास्थ अधिकारों के लिए एक ऐतिहासिक क्षण था, क्योंकि इसने अग्रिम चिकित्सा निर्देशों (‘AMD’[7]) को कानूनी मान्यता दी | इन निर्देशों का उपयोग लोग निम्नलखित चीज़ो के लिए कर सकते है:

>यदि वे असाध्य रूप से बीमार हो जाते हैं और निर्णय लेने की क्षमता खो देते हैं (आमतौर पर इसे जीवित वसीयत कहा जाता है) तो चिकित्सा उपचार के संबंध में अपनी इच्छाएं व्यक्त करें।

    >स्वास्थ्य देखभाल संबंधी निर्णय लेने के लिए एक सरोगेट निर्णय-निर्माता को नियुक्त करें, मुख्य रूप से जीवन-निर्वाह उपचार को रोकने या वापस लेने से संबंधित निर्णयों के संबंध में।

    जीवन-निर्वाह उपचार ऐसे चिकित्सीय हस्तक्षेप हैं जो कृत्रिम रूप से जीवन को लम्बा खींचते हैं, जैसे कार्डियोपल्मोनरी रिससिटेशन, वेंटिलेटर, और कृत्रिम पोषण।

    लेकिन यह अधिकार सशर्त है। जब कोई व्यक्ति खुद निर्णय लेने की क्षमता खो देता है और आगे के चिकित्सा उपचार को व्यर्थ माना जाता है (चिकित्सा पेशेवरों द्वारा किया गया निर्णय) तब दो स्तिथिया बनती है:

    > जब एएमडी मौजूद हो – उपचार करने वाली चिकित्सा टीम को निर्देश में व्यक्त इच्छाओं का पालन करना होगा और नियुक्त सरोगेट निर्णय-निर्माता से परामर्श करना होगा। सब के सहमति हो जाने के बाद, कार्रवाई की दिशा निर्धारित करने के लिए प्राथमिक और माध्यमिक मेडिकल बोर्ड द्वारा इच्छाओं की समीक्षा होगी।

        > यदि कोई एएमडी मौजूद नहीं है, तो इलाज करने वाली मेडिकल टीम और मरीज के परिवार को पारस्परिक रूप से निर्णय लेना होगा कि मरीज के सर्वोत्तम हित में क्या है।

        न्यायिक अड़चन:  व्याख्या और कार्यान्वयन चुनौतियाँ

        2018 का कॉमन कॉज निर्णय प्रक्रियागत बाधाओं और अव्यावहारिक नियामक ढांचे से भरा हुआ था, जिससे अधिकारों तक पहुंच असंभव हो गई | इस फैसले में जीवन-निर्वाह उपचारो को थामने को ‘निष्क्रिय इच्छामृत्यु’ का गलत नाम दिया गया है | इस गलत वर्णन ने व्यापक भ्रम और हानिकारक अफवाओं को बढ़ावा दिया है। भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) ने स्पष्ट किया है कि इस संदर्भ में निष्क्रिय इच्छामृत्यु शब्द भ्रामक और अनुपयुक्त है[8]। हालाँकि इन शब्दों का अक्सर एक दूसरे के स्थान पर उपयोग किया जाता हैं, पर इनमें एक महत्वपूर्ण अंतर है:

        >निष्क्रिय इच्छामृत्यु सहित इच्छामृत्यु को सामाजिक स्तर पर किसी व्यक्ति के जीवन को समाप्त करने के लिए जानबूझकर किया गया कार्य माना जाता है, जिसका गहरा नकारात्मक अर्थ होता है।

        >जीवन-रक्षक उपचार को रोकना या वापस लेना, जब उचित चिकित्सा और नैतिक दिशानिर्देशों के तहत किया जाता है, तो जीवन के कृत्रिम विस्तार के बिना रोग की प्राकृतिक प्रगति की अनुमति मिलती है।

        ‘सक्रिय’ और ‘निष्क्रिय’ इच्छामृत्यु के बीच का अंतर एक भाषाई भ्रांति है और इसलिए निरर्थक है। एक को ‘हत्या’ और दूसरे का अर्थ है ‘किसी को मरने देना’। पर सवाल उठता है कि ‘किसी को मरने देना’ का क्या मतलब है? स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं के नैतिक और कानूनी दायित्वों के बीच की रेखा कहाँ खींचता है? न्यायालयों ने गरिमा के साथ मरने के अधिकार को मान्यता देते हुए इस महत्वपूर्ण पहलू को परिभाषित करने का अवसर खो दिया।

        कल्पना करें कि एक व्यक्ति वेंटिलेटर पर है और उपचार करने वाला डॉक्टर निर्णय लेते है कि आगे के उपचार से रोगी को कोई लाभ नहीं होगा और उसकी मृत्यु निश्चित है। क्या उपचार जारी रखने का मतलब देखभाल प्रदान करना है, भले ही यह निरर्थक हो और केवल पीड़ा को बढ़ाए? यदि कोई हिप्पोक्रेटिक शपथ को सर्वोपरि मानता है, तो इसका उत्तर हाँ होगा | हालाँकि, इसमें एक समस्या यह है कि यह मानता है कि देखभाल का मतलब केवल आगे का उपचार प्रदान करना और ‘रोगी’ को बचाने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करना है, चाहे वह रोगी के लिए उपयोगी भले ही न हो | चिकित्सा व्यवसायों में इस पर बहस जारी है, लेकिन यह स्पष्ट है कि देखभाल का अर्थ है रोगी के लिए सर्वोत्तम कार्य करना तथा उसकी इच्छाओं के अनुरूप कार्य करना।

        कॉमन कॉज के फैसले में प्रक्रियागत आवश्यकताएं भी पेश की गईं जो अव्यावहारिक साबित हुईं। इसने अनिवार्य किया:

        • निर्णय लेने की पूरी प्रक्रिया में प्रथम श्रेणी के न्यायिक मजिस्ट्रेट (JMFC) की मौजूदगी और JMFC को सभी AMD पर हस्ताक्षर करने की आवश्यकता थी। इसने एक अनावश्यक नौकरशाही अड़चन पैदा की, जिससे व्यक्तियों के लिए AMD बनाना मुश्किल हो गया।

        • मामलों की समीक्षा करने और यह सुनिश्चित करने के लिए कि उपचार रोकने या वापस लेने के निर्णय उचित थे, देश भर में प्राथमिक और माध्यमिक चिकित्सा बोर्डों की स्थापना। हालाँकि, निर्णय के अनुसार इन बोर्डों में कम से कम 20 साल के अनुभव वाले विशेषज्ञ शामिल होने चाहिए थे, जो पेशेवरों के एक छोटे समूह तक सीमित हो गए। जबकि न्यायालय का उद्देश्य अधिकार के संभावित दुरुपयोग को रोकना था, लेकिन संभवतः इससे सीमाएँ पैदा हुईं

        जबकि न्यायालय का इरादा अधिकार के दुरुपयोग को यथासंभव सर्वोत्तम सीमा तक रोकना था, लेकिन निर्णय ने प्रक्रिया को अत्यधिक जटिल बना दिया। इन चुनौतियों को पहचानते हुए, प्रक्रिया को सरल बनाने के लिए एक हस्तक्षेप आवेदन दायर किया गया, जिसके परिणामस्वरूप दिशानिर्देशों में 2023 में संशोधन किया गया[9]। संशोधित दिशा-निर्देश:

        • JMFC की भागीदारी की आवश्यकता को समाप्त कर दिया गया। अब AMD पर व्यक्ति द्वारा नोटरी या राजपत्रित अधिकारी और दो गवाहों की उपस्थिति में हस्ताक्षर किए जाते हैं।

        • मेडिकल बोर्ड की संरचना को कम करके तीन डॉक्टर कर दिया गया है, जिनमें से प्रत्येक को कम से कम पाँच वर्ष का अनुभव होना चाहिए। मरीजों की परेशानी कम करने के लिए निर्णय लेने हेतु 48 घंटे की समय-सीमा निर्धारित कर इसे और सरल बना दिया गया।[10]

        इन परिवर्तनों के बावजूद, कार्यान्वयन बिखरा हुआ है। देश भर में केवल मुट्ठी भर मेडिकल बोर्ड स्थापित किए गए हैं, और AMD को नामित संरक्षकों (स्थानीय सरकार के सदस्य जो सुरक्षित रखने के निर्देशों के लिए जिम्मेदार हैं) के पास संग्रहीत करने की सिफारिश को प्रभावी ढंग से लागू नहीं किया गया है[11]

        मूल रूप से, यह निर्णय स्वास्थ्य सेवा की जमीनी हकीकत से कोसों दूर है।। अस्पतालों और मेडिकल बोर्ड पर निर्भरता एक निर्विवाद तथ्य को नजरअंदाज करती है: कि भारत की अधिकांश स्वास्थ्य सेवा अस्पताल के बहार दी जाती है[12], और जीवन के अंत में देखभाल सेवाओं के लिए संस्थागत क्षमता सीमित है[13]। बड़ी संख्या में लोग ऐसी मौत का सामना करते हैं जो सम्मानजनक नहीं है। एक और सवाल जो अनुत्तरित है वह यह है कि अदालतें कब शामिल होती हैं? ऐसे उदाहरण हैं जहां अदालतों से अनुरोध किया गया है, लेकिन यह माना जा सकता है कि जीवन रक्षक उपचार को रोकना या वापस लेना निर्णय अदालत के बाहर लिए जाते हैं।

        यह निर्णय चिकित्सा पेशेवरों और आम दर्शक के लिए जागरूकता की आवश्यकता पे चुप है| इसके अस्तित्व के ज्ञान के बिना, प्रक्रियात्मक अधिकार अर्थहीन रहते हैं।

        अंत में, ‘permanent vegetative state’ या ‘अपरिवर्तनीय कोमा’ जैसे प्रमुख शब्दों को परिभाषित नहीं किया गया है, जिससे व्याख्या में भ्रम पैदा होता है। हरीश राणा बनाम भारत संघ[14] मामले में इस बात पर प्रकाश डाला गया, जहां एक व्यक्ति जो एक दशक से अधिक समय से स्थायी रूप से वानस्पतिक अवस्था में था, उसे यह अधिकार नहीं दिया गया। दिल्ली उच्च न्यायालय के साथ-साथ सर्वोच्च न्यायालय ने भी इसे ‘सक्रिय इच्छामृत्यु’ का मामला बताया। सवाल यह है कि अगर अदालतें उसी अधिकार की सुसंगत व्याख्या नहीं कर सकती हैं, तो क्या भारत वास्तव में सम्मान के साथ मरने के अधिकार की मान्यता का दावा कर सकता है?

        कार्यान्वयन का खोखला वादा

        निखिल दातार बनाम महाराष्ट्र राज्य मामला राज्य स्तर की इन चुनौतियों को उजागर करता है[15]। डॉ. दातार ने सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देशों के कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिए एक जनहित याचिका दायर की और सम्मान के साथ मरने के अधिकार तक पहुँच सुनिश्चित करने के लिए एक प्रभावी प्रणाली बनाने की मांग की। न्यायालय ने महाराष्ट्र सरकार से जवाब मांगा और राज्य ने नियुक्त किए गए संरक्षकों का विवरण प्रस्तुत किया। हालाँकि, यह मामला न्यायिक आदेशों और कार्यकारी जड़ता के बीच अंतर पर एक बड़ा सवाल खड़ा करता है। मामला अक्सर ऐसा होता है कि न्यायपालिका द्वारा लिए गए निर्णयों को वास्तविक सुधार की शुरुआत के बजाय अपने आप में अंत के रूप में देखा जाता है।

        जून 2024 में, गोवा ने भी सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों का कार्यान्वयन देखा[16]। गोवा राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण ने भारतीय चिकित्सा संघ के सहयोग से तैयार एक एएमडी पुस्तिका भी जारी की। पुस्तिका प्रासंगिक लिंक प्रदान करती है और लिविंग विल की पेचीदगियों को समझाती है।

        महाराष्ट्र और गोवा प्रभावी तरीके से आदेशों को लागू करने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं, लेकिन अन्य राज्यों में स्थिति का आकलन करने के लिए बहुत कम शोध किया गया है, जिससे कानूनी ढांचे की प्रभावशीलता को समझने में कई अंतराल रह गए हैं।

        इससे महत्वपूर्ण प्रश्न उठते हैं: न्यायपालिका के शब्दों की क्या महत्व है यदि उनके आधार पर जमीनी स्तर पर कोई कार्यवाही न की जाए | निर्णय और कार्यकारी आदेशों के बीच अनुवाद का अभाव है, जिससे न्यायालय की मंशा और जमीनी स्तर पर क्या होता है, के बीच अंतर होता है। न्याय सुनिश्चित करने की न्यायिक जिम्मेदारी अक्सर कानूनी शब्दजाल में खो जाती है। दुर्भाग्य से, कानून का अक्षर जमीनी हकीकत से अलग रहता है।

        गलत सूचना और शब्दजाल: क्या सम्मान के साथ मृत्यु को साकार किया जा सकता है?

        सम्मान के साथ मृत्यु के अधिकार के लिए पहले से ही जटिल संघर्ष को गलत सूचना और मिथकों ने और भी बदतर बना दिया है। छह साल बाद भी, कर्नाटक अब कॉमन कॉज आदेशों के कार्यान्वयन को औपचारिक रूप से अधिसूचित कर रहा है[17]। गोवा और महाराष्ट्र ने इस मुद्दे पर कुछ दिशानिर्देश भी जारी किए हैं। 30 जनवरी, 2025 को जारी कर्नाटक के दिशा-निर्देशों में विभिन्न हितधारकों की ज़िम्मेदारियों को स्पष्ट किया गया है और जीवन रक्षक उपचार को रोकने या वापस लेने की निगरानी के लिए मेडिकल बोर्ड की प्रक्रिया की रूपरेखा तैयार की गई है। यह एक स्वागत योग्य कदम है, लेकिन अन्य राज्यों ने अभी तक इसका अनुसरण नहीं किया है।

        आदेश जारी होने के बाद, मीडिया की गलत रिपोर्टिंग लोगों में गलतफहमियों को बढ़ावा दे रही है। समाचार कवरेज में अक्सर 2018 के फैसले से अदालत की गलत शब्दावली को दोहराया जाता है, जिससे भ्रम की स्थिति और बढ़ जाती है। इसका एक उदाहरण 85 वर्षीय एचबी करिबासम्मा का मामला है[18], जो लंबे समय से गठिया, मधुमेह, मांसपेशियों में ऐंठन, स्लिप्ड डिस्क और कोलोरेक्टल कैंसर सहित कई स्वास्थ्य स्थितियों से पीड़ित हैं। आदेश जारी होने के बाद, मीडिया की गलत रिपोर्टिंग लोगों में गलतफहमियों को बढ़ावा दे रही है। समाचार कवरेज में अक्सर 2018 के फैसले से अदालत की गलत शब्दावली को दोहराया जाता है, जिससे भ्रम की स्थिति और बढ़ जाती है। एक उदाहरण 85 वर्षीय HB Karibasamma का मामला है, जो लंबे समय से गठिया, मधुमेह, मांसपेशियों में ऐंठन, स्लिप्ड डिस्क और कोलोरेक्टल कैंसर सहित कई स्वास्थ्य स्थितियों से पीड़ित हैं। उन्होंने सार्वजनिक रूप से इच्छामृत्यु की मांग की है, उनका मानना ​​है कि सम्मान के साथ मरने का अधिकार उन पर लागू होता है। 2012 में, HB Karibasamma ने कर्नाटक के उच्च न्यायालय में एक रिट याचिका दायर की, जिसमें उनके जीवन को समाप्त करने, मानवीय रूप से इच्छामृत्यु को वैध बनाने और भारतीय दंड संहिता (अब भारतीय न्याय संहिता) की धारा 306 और 309 को असंवैधानिक घोषित करने की प्रार्थना की गई[19]। यह अभियान उनके एक दशक से अधिक के काम को दर्शाता है। कोई केवल कल्पना ही कर सकता है कि यह दिशा-निर्देश उन पर लागू होंगे, तो उन्हें कितनी उम्मीद और राहत मिली होगी। हालाँकि, यह देखते हुए कि वह अभी भी निर्णय लेने की क्षमता रखती है, और जीवन-रक्षक उपचार पर नहीं है, उनका मामला वर्तमान कानूनी ढांचे के तहत योग्य नहीं है।

        जीवन के अंत के फैसले नैतिकता, सामाजिक और धार्मिक स्तर पर भावनाओं के सवालों से भरे होते हैं, और इसके आसपास की कानूनी अस्पष्टता इन चुनौतियों को बढ़ा देती है | Karibasamma मामला सम्मानजनक जीवन के अंत चाहने वालों के परेशानी को दर्शाता है।

        उनकी स्थिति भारत में गुणवत्तापूर्ण जीवन-समाप्ति देखभाल तक पहुँचने में व्यापक मुद्दों को भी रेखांकित करता है। कानून की बारीकियों को संप्रेषित करने में विफलता अब झूठी उम्मीद का कारण बन गई है।

        एक स्पष्ट कानूनी ढांचे की आवश्यकता

        जीवन के अंत में देखभाल के लिए भारत का दृष्टिकोण खंडित बना हुआ है, जो समर्पित कानूनी ढांचे के बजाय न्यायिक हस्तक्षेप पर बहुत अधिक निर्भर करता है। वैधानिक समर्थन की कमी ने असंगत व्याख्याओं और कमजोर प्रवर्तन को जन्म दिया है। स्पष्ट कानून के बिना, निष्क्रियता के परिणामों में ये शामिल हैं:

        • जीवन के अंत के मुद्दों पर अदालती मामलों का बढ़ता हुआ बैकलॉग।

        • कानूनी अधिकारों की गलत व्याख्या।

        • अनावश्यक और महंगे चिकित्सा हस्तक्षेप जो पीड़ा को बढ़ाते हैं।

        केवल एक नेक इरादे वाला सर्वोच्च न्यायालय का फैसला पर्याप्त नहीं है। कानून के बिना, अधिकार का वादा खोखला और केवल दिखावटी रह जाएगा। स्पष्टता, स्थिरता और सुलभता प्रदान करने के लिए एक वैधानिक ढांचा आवश्यक है।

        जैसे-जैसे भारत चिकित्सा और कानूनी क्षेत्रों में आगे बढ़ रहा है, किसी को भी अकेले और बिना किसी सहारे के मरने की कठिन यात्रा से नहीं गुजरना चाहिए। जीवन के सम्मान में मृत्यु के सम्मान को भी शामिल किया जाना चाहिए।

        Shireen Yachu is a Research Fellow for the Founder’s Office at the Vidhi Centre for Legal Policy. She holds a Master’s degree in Sociology from the Delhi School of Economics and an undergraduate degree in BA(H) Sociology from the University of Delhi. Her areas of interest include health, gender & sexuality, and education. 


        [1] Savita Butola and Dr Roop Gursahani, ‘Advance care planning and the ethical obligation of death literacy as a public health initiative in India’ (2024), IX(4) Indian Journal of Medical Ethics < https://ijme.in/articles/advance-care-planning-and-the-ethical-obligation-of-death-literacy-as-a-public-health-initiative-in-india/> accessed 15th February 2025 

        [2] Indian Council of Medical Research, Definitions of terms used in limitation of treatment and providing palliative care at end of life, available at < https://ethics.ncdirindia.org/asset/pdf/Definition_of_terms_used_in_limitation_of_treatment_and_providing_palliative_care_at_end_of_life.pdf> last seen on 22nd March 2025

        [3] India Ageing Report: Caring for our elders – Institutional Responses, International Institute of Population Sciences & United Nations Population Fund, available at < https://india.unfpa.org/sites/default/files/pub-pdf/20230926_india_ageing_report_2023_web_version_.pdf> last seen on 20th March 2025

        [4] (1996) 2 SCC 648

        [5] (2011) 4 SCC 454

        [6] Common Cause (a registered society) v. Union of India, (2018) 5 SCC 1

        [7] Indian Council of Medical Research, Definitions of terms used in limitation of treatment and providing palliative care at end of life, available at < https://ethics.ncdirindia.org/asset/pdf/Definition_of_terms_used_in_limitation_of_treatment_and_providing_palliative_care_at_end_of_life.pdf> last seen on 22nd March 2025

        [8] Indian Council of Medical Research, Definitions of terms used in limitation of treatment and providing palliative care at end of life, available at < https://ethics.ncdirindia.org/asset/pdf/Definition_of_terms_used_in_limitation_of_treatment_and_providing_palliative_care_at_end_of_life.pdf> last seen on 22nd March 2025

        [9] Common Cause (a registered society) v. Union of India (2023) 14 SCC 131

        [10] Directorate of General Health Services, Ministry of Health and Family Welfare, Guidelines for withdrawal of life-support in terminally ill patients, available at https://mohfw.gov.in/sites/default/files/Guidelines%20for%20withdrawal%20of%20Life%20Support.pdf, last seen on  22nd March 2025

        [11] Nihal Sahu, Living wills implementation lags in India, The Hindu (4th April 2024), available at < https://www.thehindu.com/opinion/op-ed/living-wills-implementation-lags-in-india/article68025071.ece> last seen on 22nd March 2025

        [12] Isha Anand, Anjana Thampi, Less than a third of Indians go to public hospitals for treatment, LiveMint (4th May 2020), available at < https://www.livemint.com/news/india/less-than-a-third-of-indians-go-to-public-hospitals-for-treatment-11588578426388.html>, last seen on 23rd March 2025  

        [13] Taran Deol, Poor infrastructure, staff crunch continue to plague healthcare in rural India: Centre, Down to Earth, (20th Jan 2023), available at < https://www.downtoearth.org.in/health/poor-infrastructure-staff-crunch-continue-to-plague-healthcare-in-rural-india-centre-87250>, last seen on 23rd March 2025  

        [14] Harish Rana v Union of India 2024 SCC OnLine Del 4639

        [15] Prof Dr Nikhil D Datar v. State of Maharashtra PIL/3/2024 [Civil]

        [16] Lisa Monteiro, In a big step, Goa implements its first living will as per SC directive, Times of India (1st June 2024), available at < https://timesofindia.indiatimes.com/city/goa/in-a-big-step-goa-implements-its-first-living-will-as-per-sc-directive/articleshow/110603707.cms>, accessed on 20th March 2025

        [17] Niranjan Kaggere, Karnataka 1st state to notify Supreme Court order on ‘right to die with dignity’, Times of India (1st February 2025), available at < https://timesofindia.indiatimes.com/india/karnataka-1st-state-to-notify-supreme-court-order-on-right-to-die-with-dignity/articleshow/117802808.cms>, accessed on 20th March 2025

        [18] M Raghuram, A long battle for dignity: Karibasamma’s two-decade fight for the die to die, Down to Earth, (18/02/2025), available at < https://www.downtoearth.org.in/governance/a-long-battle-for-dignity-karibasammas-two-decade-fight-for-the-right-to-die> accessed on 20th March 2025

        [19] H.B. Karibasamma v. Union of India (2024) 1 AIR Kant R 508



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